¤ महाविद्यालय का इतिहास ¤
राजकीय महाविधालय राजगढ़ की स्थापना जुलाई 1967 में हुई थी। महाविधालय का कोई पृथक भवन न होने के कारण टहला रोड़ सिथत एस.टी.सी. स्कूल भवन में इसका संचालन प्रारम्भ किया गया। जुलाई 1969 में राज्य सरकार द्वारा एस.टी.सी. स्कूल समाप्त कर दी गयी �"र यह भवन महाविद्यालय को आवंटित कर दिया गया। जुलाई 1967 में त्रिवर्षीय स्नातक पाठयक्रम (टी.डी.सी.) प्रथम वर्ष कला का प्रारम्भ हुआ जिसमें अनिवार्य विषय- अनिवार्य अंग्रेजी, अनिवार्य हिन्दी, भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का इतिहास तथा वैकलिपक विषय - हिन्दी साहित्य, राजनीति विज्ञान, अर्थषास्त्र, भूगोल, इतिहास, समाजषास्त्र एवं संस्कृत विषयों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। टी.डी.सी. विज्ञान का प्रारम्भ जुलाई 1971 में हुआ। इसके अन्तर्गत अनिवार्य विषयों के अलावा वैकलिपक विषयों में भौतिकषास्त्र, रसायनषास्त्र, गणित, वनस्पतिषास्त्र, जन्तुषास्त्र के अध्ययन की व्यवस्था हुई। वाणिज्य की कक्षा (टी.डी.सी.) का प्रारम्भ जुलाई 1976 से हुआ। स्नातक स्तर पर अंग्रेजी साहित्य विषय की पढ़ाई 1984-85 के सत्र से प्रारम्भ की गयी। महाविद्यालय में इतिहास एवं राजनीति विज्ञान विषयों में स्नातकोत्तर कक्षाएं जुलाई 1994 से तथा एम.एस.सी. रसायनषास्त्र जुलाई 2010 से प्रारम्भ की गयी।
राजगढ़ क्षेत्र ऐतिहासिक-संस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न एवं वैविध्यपूर्ण रहा है, वैदिक काल में यह क्षेत्र मत्स्य जनपद के अन्तर्गत था। चन्द्रवंषी नरेष उपसिथर के पुत्र मतिसल ने मत्स्यपुरी (वर्तमान माचेडी) नामक नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया माचेडी वर्तमान राजगढ से 05 कि.मी. पूर्व में अवसिथत है। मतिसल के पौत्र विराट के समय महाभारत काल में मत्स्य जनपद की राजधानी मत्स्यपुरी से विराटनगर स्थानान्तरित कर दी गयी। हर्षकाल तक राजगढ़ क्षेत्र केनिद्रय साम्राज्यीय शक्तियों नन्द, मौर्य, शुगं, कुषाण, गुप्त, वर्धन आदि के अधिपत्य में रहा। साम्राज्यीय प्रतिहारों के काल में मत्स्यपुरी (माचेडी) व्याघ्रराज (राजगढ) राज्यपुर (राजौरगढ) आदि प्रतिहार सत्ता के केन्द्र थे। गुर्जर प्रतिहारवंषी यहां के सामन्त शासक थे। राजा व्याघ्रराज (बाघराज) ने मत्स्यपुरी से उमील पषिचम में एक नगर बसाकर एक गढ़ भी बनवाया जिसे बाघपद नाम दिया। गढ के समीप बाघराज बाग एवं बाघोला बांध का निर्माण करवाया। राजगढ़ क्षेत्र में लोक देवता के रूप में समादृत एवं उपांसित राजा बाघराज की पाषाण प्रतिमा बाघराज बाग के समीपस्थ प्रतापसागर की पाल पर सिथत है। राजौरगढ़ से प्राप्त 959 ई॰ के शिलालेख से ज्ञात होता है कि कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के सामन्त रूप में मन्थनदेव यहां शासन कर रहे थे।
प्रतिहारसत्ता के अवसान के पश्चात यह क्षेत्र अजमेर-दिल्ली के चौहान शासकों के अधिकार में आ गया, जिनके सामन्त के रूप में बडगुर्जर क्षत्रिय यहां शासन कर रहे थे। चौहानों के पतन के पश्चात ये स्वतन्त्र हो गये। माचेडी की बावडी के लेख (1382 ईस्वी) से ज्ञात होता है कि बडगुर्जर राजा असलदेव के पुत्र राजाधिराज गोगदेव का यहाँ राज्य था। ईश्वरमल इस वंष का अनितम शासक था। मुगल बादषाह अकबर के नेतृत्व में मुगलसत्ता के उदय काल में आमेर के मानसिंह ने ईश्वरमल को परास्त कर राजगढ़ माचाडी क्षेत्र को आमेर राज्य के अधीन कर दिया।
बडगुर्जर शासकों के दीर्घकालीन शासन काल में इस क्षेत्र का पर्याप्त सांस्कृतिक एवं स्थापत्यीय विकास हुआ। ईश्वर की पत्नी चम्पादेवी ने माचेडी में एक विषाल एवं भव्य कूप का निर्माण करवाया। कूप में जाने के लिए घुमावदार सीढिया व सुन्दर झरोखे है। इसके अन्दर शिवलिंग स्थापित है,
अफगान आदित्यषाह को दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ करने वाले तथा पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर के विरूद्ध मुगल सेना का नेतृत्व करने वाले हेमू, जो इतिहास में राजा विक्रमाजीत के नाम से प्रसिद्ध हुआ, की जन्म भूमि माचाडी थी। पानीपत के द्वितीय युद्ध की पराजय के पश्चात उसे बैराम खा ने बंदी बनाकर मार दिया था।
मुगलकाल में आमेर के कच्छवाहा वंष के वैरसिंह ने स्वेच्छा से छोटे भ्राता नृसिंह के पक्ष में आमेर राज्य का परित्याग कर मौजमाबाद की जागीर प्राप्त की। वैरसिह के पौत्र नरू से कछवाहों के नये वंष नरूका वंष का उदय हुआ, इन्ही के वंषज रावकल्याण सिंह ने मिर्जाराजा जयसिंह के पुत्र कीर्ति सिंह के साथ मिलकर कामा के विद्रोह का दमन किया। फलत: आमेर नरेष ने 1671 ईस्वी में माचाडी की जागीर कल्याण सिह को प्रदान की। इस जागीर में माचाडी राजगढ तथा आधा राजपुर सहित कुल ढ़ार्इ गांव समिमलित थे। कल्याण सिंह का वंषज प्रताप सिंह 1756 ईस्वी में माचाडी का जागीरदार बना। जयपुर नरेष माधोसिंह से प्रारमिभक मनमुटाव के पश्चात सामन्त प्रताप सिंह ने अपनी सैनिक योग्यता एवं प्रषासनिक कुषलता से जयपुर दरबार में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। उसने अपनी माचाडी जागीर क्षेत्र का विस्तार किया तथा 1770 ईस्वी में राजगढ़ किले का निर्माण पूर्ण कर उसे अपनी राजधानी बनाया। अपनी सिथति को सुदृढ़ करने हेतु प्रताप सिंह ने मालेखेडा, सैंथल, मैड, भाबरू, बलदेवगढ़, काकवाडी, थाना, अजबगढ़ किलाें का निर्माण करवाया, मुगल सेनापति को भरतपुर आक्रमण के समय प्रदान कि गयी सैनिक सहायता से प्रसन्न होकर तत्कालीन मुगल बादषाह शाहआलम ने 1774 ईस्वी में प्रताप सिंह को राव राजा बहादूर की उपाधि व पंचहजारी मनसब प्रदान कर एक स्वतत्र राजा के रूप में मान्यता प्रदान की तथा माचेडी़ की जागीर को सदैव के लिए जयपुर राज्य से स्वतन्त्र कर दिया। 1775 ईस्वी में प्रताप सिंह नेमाचेडी के स्थान पर अलवर को अपनी राजधानी बनाया व अपना राज्याभिषेक करवाया।
प्रतापसिंह ने राजगढ नगर को जयपुर नगर वास्तु के अनुरूप चौपडनुमा स्थापत्य के आधार पर निर्मित करवाया। यहां गोविन्ददेव जी के परम भक्त राव प्रताप सिंह ने 1770-72 ई॰ में गोविन्ददेव जी के कलात्मक मदिर का निर्माण करवाया। यहां बाग बगीचों मनिदर, परकोटों, खाइयों, सुन्दर भवनों, बावडियों, का निर्माण करवा कर नगर की श्रीवृद्धि की राजगढ में टकसाल की स्थापना एवं प्रताप सागर बांध निर्मित करवाया, राजगढ दूर्ग का स्थापत्य एवं यहां अवसिथत शीष महल दर्षनीय है। महल की भितितयों पर राधाकृष्ण के, देवी के विभिन्न स्वरूपों तथा अंगडाई लेती, कांटा निकालती, श्रृंगार करती, वेणी गूंथती, तबला-सारंगी सितार बजाती, लावण्यमयी नायिका की अत्यन्त सुंदर चित्रांकन दिये गये हैं। थाना ठिकाना (वर्तमान थाना राजाजी गांव) से गोद गये अलवर के शासक राव विनय सिंह के भ्राता जागीरदार हनुवंतसिंह की विषाल छतरी चित्रकला एवं स्थापत्य की दृष्टि से दर्षनीय हैं। राजा षिवदान सिंह के मुस्लिम दीवान अम्भूजान की हवेली, जो नवाब की हवेली के नाम से ज्ञात है, राजगढ़ किले के पास सिथत है। थाना ठिकाने के महाराजा मंगलसिंह की माता जी द्वारा 1880 ईस्वी में थाना राजाजी गांव में लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण करवाया गया।
महाराजा जयसिंह के शासन काल में प्रशासनिक पुनर्गठन के अन्तर्गत राजगढ़ को अलवर रियासत का दक्षिणी जिला बनाया गया। जिला अधिकारी को कलेक्टर व जिला मजिस्ट्रेट की शकितयां दी गयी। राजगढ़ जिला प्रषासन के अन्तर्गत पांच लहसीलें, दस पुलिस थाने व पन्द्रह चौकियां रखी गई। 1873-74 में राजगढ़ में नगर पालिका संस्था स्थापित की गयी। 1939 ईस्वी में नगर पालिका में चुनाव की प्रथा आरम्भ की गयी।
अलवर रियासत के प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी, काग्रेसी नेता एवं मत्स्य संघ के प्रधानमंत्री बाबूषोभा राम का जन्म राजगढ़ कस्बे में, 1914 ईस्वी में हुआ। राजनीति जागृति एवं राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन का प्रभाव राजगढ़ की जनता पर भी पडा। 1937 ईस्वी में कांग्रेस कमेटी की स्थापना की गयी। प्रजा मण्डल आंदोलन में यहाँ की जनता ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
राजगढ़ एवं आस-पास के क्षेत्र में स्थापत्य कला की दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण बावडि़याँ है। यहाँ के ऐतिहासिक एवं दर्षनीय स्थानों में नारायणी माता, पाण्डूपोल, भानगढ़, नीलकण्ठ महादेव मनिदर (राजौरगढ़) कांकवाडी किला, सरिस्का बाघ अभयारण्य, सीलीसेढ़, सरिस्का महल आदि प्रमुख है।